5 पांच अच्छी कहानीयां दिल छुं जाए
मित्रो इसमें आपको बच्चों की हिन्दी कहानीयां मिलेगी। जो आपके दिल को छु जाएगी। इस कहानी में शिक्षा के साथ ट्विस्ट भी मिलेगा। यह कहानी पढ़ने भी मजेदार है और सुनाने में भी। कुल मिलाकर कहा जाए कि कहानी को पढ़ने से आपको बहुत कुछ मिलने वाला है। यह कहानी जीवन से सम्बन्धित तथ्यो पर आधारित है।
मुझे पूरी उमीद है कि यह कहानी आपको अत्यंत पसन्द आयेगी। हमारा उद्देश्य यही है कि आप कहानी को अपने बच्चो या परिवार के साथ मिलकर सांझा करे। जिससे आपके परिवार का प्यार बढ़ सके।
मोती के हार की कीमत
यह कहानी बबिता और सुरज की है। सुरज और बबिता दोनो ही एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। लेकिन दोनो ही पत्ति-पत्नी थे तो छोटे-मोटे भी झगड़े होते रहते थे। दोनो की सोच बिल्कुल अलग ही थी। बबिता को पैसो से ज्यादा प्यार था तो दूसरी तरफ सुरज को अपने आत्मसम्मान से प्यार था।
सुरज सरकारी कलर्क की नौकरी करता था। वह सुबह ही जल्दी निकल जाता था और रात भी देर से ही लौटता था। इसके साथ ही वह टाइपिंग का भी काम करता था। और उससे कुछ ऐक्स्ट्रा पैसे भी कमा लेता था। लेकिन वह दिन-रात मेहनत करता था।
सुरज अपने स्वभाव के कारण कभी रिस्वत नहीं लेता था। लेकिन बबिता उस पर रोज दबाव डालती थी। लेकिन सुरज अपने स्वभाव के साथ कभी समझोता नही करता था। हालांकि वह मेहनत ज्यादा करके पैसा कमाता लेता था लेकिन रिस्वत कभी नहीं लेता था।
बबिता एक अमीर परिवार से आती है। हालांकि इन दोनो की शादी से उनका परिवार बिल्कुल भी खुश नहीं था। क्योंकि सुरज एक गरीब लड़का था। लेकिन बबिता प्यार के कारण सुरज से शादी कर लेती है। और अलग से जिंदगी को जिते है।
इसी कारण बबिता अमीरो की तरह रहती थी। अपने पूरे घर को अमीर लोगो की तरह सजा कर रखती थी। और पूरा समय एक सुन्दर सी साड़ी पहनकर रहती थी तथा खाने में रोज बहुत सारे पकवान बनाया करती थी। इससे घर में पैसे को कमी होती थी तो वह सुरज पर रिस्वत का दबाव डालती थी।
कमीशनर का निमंत्रण
एक दिन की बात है जब उस शहर के कमीशनर अपनी शादी की पार्टि में बबिता और सुरज को निमंत्रण पत्र भेजते है। कमीशनर सुरज के काम से बहुत खुश था इसी कारम उन दोनो की अच्छी दोस्ती थी।
निमंत्रण देखकर बबिता खुशी से घुमने लगती है। और तैयार होकर सुरज का इंतजार करने लगती है। हमेशा की तरह वह रात को घर लौटता है। उसके बाद बबिता उसे प्यार से बैठाकर अच्छे से खिलाती है। उसके बाद कमीशनर का लेटर देती है।
सुरज उस पत्र को देखकर इतना ज्यादा खुश बिल्कुल नहीं होता है और वह जाने से मना भी कर देता है।
बबिता- सुरज जी! आखिर आप क्यों नहीं जाना चाहते हो?
सुरज- देखो बबिता! वह बहुत बड़े आदमी है। उन्होने हमे याद किया यही बड़ी बात है लेकिन अगर हम उनके घर जाते है तो हमें भी उन्हे अपनी पार्टि में बुलाना होगा। और तुम जानती हो कि ज्यादा खर्च भी नहीं कर पाते है। इसलिए हम वहां पर नहीं जाएंगे।
इसके बाद सुरज सोने के लिए चला जाता है। लेकिन उसे बबिता उसे पार्टि के लिए मना ही लेती है। उसके बाद बबिता सुरज से पार्टि में पहने के लिए एक सुन्दर सी साड़ी मांगती है।
सुरज- बबिता घर में बहतु सारी साड़ियां पड़ी है। और मैने तुम्हे 20 दिन पहले ही तो एक साड़ी दिलाई थी। लेकिन अब बिल्कुल नहीं।
उधारी का मोती हार
इसके बाद सुरज काम पर चला जाता है। बबिता को एक मोतियों का हार भी चाहिए था। लेकिन उसे पता था कि सुरज उसे किसी भी हालत में हार नहीं दिलायेगा। इसलिए वह अपनी एक सहेली के घर पर चली जाती है। और वहां से एक रात के लिए मोती का हार मांगती है।
बबिता की सहेली (मोना) पहले तो उसकी गरीबी पर मजाक उड़ाती है लेकिन फिर भी वह उसे अपना हार दे देती है। बबिता उसे खुशी खुशी अपने घर पर ले आती है।
और उस पार्टी के दिन वह उस हार को पहन भी लेती है। सुरज यह देखकर बहुत क्रोधित होता है। और वह उसे उसी समय वापिस लौटाने को भी कहता है। लेकिन बबिता नहीं मानती है और आखिर में सुरज को भी उसकी बात माननी पड़ती है।
सुरज- लेकिन बबिता इस हार बहुत ही खास ध्यान रखना और घर पर पहुंचने से पहले इस हार को उसे दे देना है।
बबिता- ठिक है, सुरज जी!
पार्टी का दिन
दोनो ही उस पार्टि में पहुंच जाते है। लेकिन उस मोती के हार के साथ बबिता को देखकर सभी लोग सिर्फ उसकी तरफ ही देख रहे थे। और सभी औरते उसे घेर लेती है। बबिता यह सब देखकर बहुत ही खुश होती है। सुरज सीधे ही कमीशनर से मिलने चला जाता है। लेकिन सुरज के मन में सिर्फ उस हार की चिंता थी।
इसके बाद पूरी रात पार्टी होती है। और बबिता पार्टि का पूरा मजा लेती है। पार्टी के खत्म होने पर सुरज उसके गले पर अपना कपड़े का गमचा रख लेता है ताकि कोई रात में हमला न कर दे। उसके बाद दोनो ही टैक्सी में बैठकर सीधे घर चले जाते है।
सुरज- बबिता चलो अभी उस हार को डब्बे में रखो और सुबह की पहली किरण में ही उसे लौटा देना।
बबिता- ठिक है,
लेकिन जैसे ही बबिता अपने गले से कपड़ा निकालती है। तो हार गायब होता है। बबिता कि यह देखकर चिल्हाती है। और जैसे ही सुरज को पता चलता है तो उसके हाथ-पैर फुल जाते है। उसके बाद वह उसी रात को दोनो हार ढुंढने के लिए निकलते है। कमीशन के घर तक पूरी ढुंढ लेते है। और उसके बाद वह टैक्सी वाले से पूंछते है लेकिन वह हार नहीं मिलता है।
मोती का हार चौरी
इसके बाद अगली सुबह हो जाती है और मोना का फोन आता है। बबिता सुरज के कहने पर कहती है कि- मोना! पार्टि में तुम्हारे हार की डोरी टूट गयी थी। लेकिन दो दिनो में वह ठिक करवाकर लौटा देगी।
उसके सुरज बिल्कुल उसी तरह का एक नया हार बनवाता है। और उसका खर्चा 15 लाख तक का होता है। उसके लिए सुरज अपनी सभी बचत और घऱ को गिरवी रखकर पैसो का इंतजाम करता है। और आखिर में दो दिनो के अंदर वह असली हार बनवा देता है। और मोना को लौटा भी देता है।
लेकिन अब उनकी स्थिति बहुत ही भयानक हो जाती है। उनका घर भी गिरवी था। इसलिए बबिता अपने आप को पूरी तरह बदल देती है और फट साड़ियों को पहना शूर कर देती है। थोड़ा बहुत खाकर अपना पेट भी भर लेती है। साथ घर का पूरा काम खुद ही करती है। इसके अलावा सुरज जो दिन में काम करता था वह रातभर काम करता था। और थोड़े-थोड़े पैसे जोड़ता था।
इस तरह बबिता की पूरी जिंदगी बदल जाती है। और लगभग 10 साल बाद वे इस कर्ज से झुटकारा पाते है। बबिता को अब समझ आ चुका था कि किसी की भी चीज नहीं मांगनी चाहिए। क्या पता एक के बदले दोने देने की जरूरत पड़े। और जिंदगी जो मिलता है उसी में खुश रहना चाहिए। और जिंदगी से कभी कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए।
बबिता को अपनी हर गलती का पछतावा होता है।
एक दिन बबिता अपने घर पर पौछा लगा रही थी। तभी मोना उसके घर पर आती है। और बबिता को बुलाती है। लेकिन बबिता की बुरी हालत देखकर मोना उसे पहचान ही नहीं पाती है। तब बबिता उसे बताती है वहीं बबिता है।
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मोती हार का राज़
बबिता- घर आओ, मोना! काफि दिनों बाद मिली हो।
मोना- अरे मे तो दस साल तक बाहर थी। लेकिन तुमने यह क्या हाल बनाया है।
बबिता- अपने किये की सजा को काट रही हुं। वैसे तुम्हारा हार तो ठिक है न। और मैं तुम्हे सच्चाई बताना चाहती हुं कि तुम्हारा हार दस साल पहले ही खो गया था। इसलिए हमें फिर से वही हार खरिदना पड़ा।
मोना- मतलब वह 15 लाख का हार असली है। क्योंकि मैने तुम्हे दस साल पहले नकली हार दिया था।
बबिता- क्या, क्या कह रही हो। मुझे यकिन नहीं हो रहा है।
मोना- हां, बबिता। मैं तुम्हे वह हार बहुत जल्दी दे दूंगा। लेकिन मुझे तो अभी तक नहीं पता था कि वह हार नकली है। और तुमने बेवजह ही इतने दुख उठाये।
बबिता- लेकिन इस जिंदगी से मुझे यह पता चल गया कि अपनी जिंदगी में जो मिले उसी में खुश रहना चाहिए और जिंदगी से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए।
सच मोना इससे मुझे जिंदगी की सबसे बड़ी सिख मिली है।
तो मित्रो कैसी लगी यह कहानी। उमीद है कि आपको यह कहानी पसन्द आयी होगी। अगर हां, तो इसे अपने दोस्तो के साथ जरूर सांझा करे।
कहानी पढ़ने के लिए धन्यवाद।
किसान और राजा की कहानी
बहुत पुरानी है। एक दिन एक किसान अपना खेत जोत रहा था। उसी समय उस देश का राजा घोडे पर सवार होकर उधर जाता है। किसान को देखकर राजा ठहर गया और उसने किसान से पुछा- क्यों भाई, एक दिन में तुम कितना कमा लेते हो?
किसान ने अपना हल रोकते हुए जवाब दिया- अन्नदाता , मैं पूरे दिनभर में केवल चार आनें कमा पाता हूं।
राजा ने पूछा- तुम इन चार आनों का क्या करते हो?
किसान ने जवाब दिया- एक आने से मैं खाना खाता हूँ, दूसरा उधार देता हूँ, तीसरा चुका देता हूँ और चौथा कुएं में फेंक देता हूँ।
राजा कुछ समझ न सका और उसने किसान से साफ-साफ बताने को कहा।
किसान के आने का हिसाब
किसान ने तब विस्तार से बताया- श्रीमान! पहले आने से मैं अपना और अपनी पत्नी का पेट भरता हूँ और दूसरे आने से मैं अपने बच्चे को खिला-पिला देता हूँ। जब वे बड़े हो जायेंगे और जब में बुढा हो जाउंगा तब वे मेरी देखभाल कर मेरा यह कर्ज चुका देंगे।
तीसरे आने से में अपने वृध्द माता-पिता का भरण-पोषण करता हूँ और उनका कर्ज चुकाता हूँ।
चौथा आना मैं किसी गरीब और असहाय को दान देता हूँ अर्थात् समाज सेवा में लगा में देता हूँ। जिसके बदले में कुछ पाने की आशा मैं नहीं करता ।
किसान का यह बुध्दिमतापूर्ण जवाब सुनकर राजा बेहद खुश हुआ और उसने किसान से कहा- जब तक तुम मेरा चेहरा एक सौ बार नहीं देख लो तब तक तुम यह जवाब किसी को नहीं बताओगे। किसान ने वादा कर दिया और अपने काम में व्यस्त हो गया।
अगले दिन जब राजा अपने मंत्रियों समेत दरबार में बैठा हुआ था तब उसने अपने मंत्रियों से पूछा- अपने देश में एक किसान रहता है जो चार आने रोज कमाता है। पहला आना वह खाता है, दूसरा आना उधार देता है, तीसरा आना चुकाता है और चौथा आना कुएं में जाल देता है। बताइए, कैसे?
मंत्रियों ने राजा के प्रश्न पर बहुत दिमाग खपाया मगर कोई इसका उत्तर नहीं दे पाया। मंत्रियों में से एक को इस बात की भनक लग थी कि राजा की बातचीत कल एक किसान से हुई थी। वह मंत्री फौरन उस किसान के पास गया और उससे जवाब मांगा।
किसान ने कहा- मैं आपको इस सम्बन्ध में तब तक कुछ नहीं बता सकूंगा जब तक कि मैं राजा का चेहरा सौ बार नहीं देख लूं इसलिए यदि आप जवाब जाहते हैं तो मुझे सौ स्वर्ण मुद्राएं दिजिए, जिन पर राजा का चित्र है। मंत्री ने किसान को सौ मुद्राएं देकर जवाब जान लिया। अब मंत्री ने राजा के पास जाकर उसके प्रश्न का सही जवाब दे दिया। राजा फौरन भाप गाय कि मंत्री को किसान ने बताया है। राजा ने किसान को दरबार में बुलवाया। दरबार में राजा ने किसान से पूछा- तुमने प्रतिज्ञा क्यों नहीं निभाई?
किसान ने जवाब दिया- राजन, मंत्री महोदय को यह जानकारी देने से पहले मैंने आपका चेहरा सौ बार देख लिया था।
तब उसने राजा को सौ स्वर्ण मुद्राओं की थैली दिखाई। राजा किसान की सूझबूझ और बुध्दीमानी से बड़ा प्रभावित हुआ और उसने सौ स्वर्ण मुद्राएं अपनी ओर से भी किसान को भेंट की।
सिक्कों की खनक
किसी सहारनपुर गाँव मे एक मेहनती व चालाक लकडहार रहता था। एक दिन वह लकडहारा लकडी काट कर थकाहारा घर को लौट रहा था। तभी वह एक मिठाई की दुकान के आगे जाकर रुक गया। मिठाई की दुकान से मीठी-मीठी खुशबु उसका मन मोह रही थी तो वह मिठाई की दुकान के आगे जाकर रुक गया और वह मिठाई की खुशबु का आनन्द लेने लगा। और वह मिठाई की खुशबु की वाह वाही कर रहा था उसे खुशबु बहुत अच्छी लगी वह कुछ समय तक खुशबु का आनन्द लेता रहा।
मिठाई का दुकानदार उसे देख रहा था। दुकानदार लकडहारे से गुस्सा हो गया और वह उससे उँची आवाज में मिठाई की खुशबु का आनन्द लेने के पैसे माँगे। य़ह सुनकर लकडहारा हैरान हो गया। और बोला मिठाई की खुशबु के लिए भला कौन पैसे लेता है, मैने तो सिर्फ मिठाई की खुशबु का आनन्द लिया है मिठाई खाने का नहीं। तो मैं पैसे किस काम के दुँ।
बहुत समझाने के बाद के भी दुकानदार आपनी जीद पर अडा रहा। तभी लकडहारे ने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और उन्हे हवा में खनकाया और सिक्को को वापस अपनी जेब मे रख लिया। और दुकानदार से बोला यह लिजिए मैनें अपना ऋण दे दिया हैं। दुकानदार कुछ भी समझ नही और बोला तुमने तो सिर्फ पेसे खनकाए थे, पैसे तो दिये ही नहीं। उसने पुनः अपने पैसे माँगे।
लकडहारे ने जवाब दिया कि जिस प्रकार मैनें तुम्हारी मिठाई की खुशबु का आनन्द लिया हैं वैसे ही मैनें भी आपको अपने पैसो की खनक का आनन्द देकर अपना ऋण चुका दिया हैं। दुकानदार यह सुनकर उदास हो गया, उसके पास लकडहारे का कोई जवाब नही था। और वह अपनी दुकान पर वापस चला गया। लकडहारा भी मुस्कुराकर घर की ओर चला गया।
इस प्रकार लकडहारे ने अपनी बुध्दि और चालाकी से लालची दुकानदार से अपने पैसे बचा लिये।
शिक्षाः– हमें हमेंशा ऐसे लालची लोगों से दुर रहना चाहिए और उनसे कभी घबराना नही चाहिए ,तथा अपनी बुध्दि का इस्तेमाल कर ऐसे लोगों को जवाब देना चाहिए।
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जीन्दगी की अच्छी सीख
जितेन्द्र बाजार से सामान खरिदकर अपने घर लौटा। मन ही मन वह बहुत खुश हो रहा था। वह अपने दिल में सोच रहा था। – जब उसकी मम्मी को यह मालूम होगा कि उनका बेटा मुफ्त में ही सामान खरीदकर लाया है तो वे खुशी से झूम उठेंगी और उसकी चतुराई के लिए उसे शाबाशी देगीं। यह सोच-सोचकर वह खुशी से मुस्करा रहा था।
-ले आए सामान ?- घर पर पहुँचते ही उसकी मम्मी ने उससे पूछा तो वह खुशी से मुस्कराते हुए उनसे बोला- मम्मी! आपका बेटा सामान भी ले आया और आपका दिया हा यह पचास रूपये का नोट भी।
वो कैसे? – सुनकर उसकी मम्मी ने आश्चर्यचकित होकर उससे पूछा।
-वह बोला- मुझे सामान देने के बाद दुकानदार दूसरे ग्राहक को सामान देने लग गया। उसे पचास रुपये का अपना नोट मैंने पहले ही दे दिया था। अपने बचे हुए दो रुपये उससे लेने के लिए मैं दुकान पर खड़ा रहा था। उसने सोचा कि मैनें उसे सौ रुपये का नोट दिया था। यह सोचकर उसने मुझे दो रुपये के साथ पचास रूपये का नोट भी वापिस दे दिये।
यह कहकर जितेन्द्र अपनी इस चतुराई पर गर्व से मुस्कराते हुए अपनी मम्मी की ओर देखने लगा। उसकी मम्मी बोली – उस समय तुम्हें यह डर नहीं लगा कि कहीं दुकानदार को याद न आ जाए कि तुमने तो उसे पचास रुपये का ही नोच दिया था?
-मुझे डर तो लगा था मम्मी! मुझे तो अब भी डर लग रहा है कि कही उस याद न जाए। उसकी मम्मी बोली-उस समय तुम्हे यह डर नहीं लगा कि दुकानदार को यह याद न आ जाए कि तुमने तो उसे सिर्फ पचास रुपये का ही नोच दिया था?
-मुझे डर तो लगा था मम्मी! मुझे तो अब भी डर लग रहा है कि कहीं उसे यह याद न आ जाए। अगर उसे यह याद आ गया तो वह हमारे घर पर भी आ सकता है। -जितेन्द्र ने अपनी मम्मी के प्रश्न का जवाब दिया।
उसकी मम्मी उससे बोली- अगर उसे यह याद आ गया तो इससे हमारी कितनी बदनामी होगी? सभी लोग हमें बेईमान और धोखेबाज समझकर हमसे घृणा करेंगे बेटे। यह सुनकर जितेन्द्र उनसे बोला- आप ठिक कह कही हैं मम्मी। – तभी उनके दरवाजे पर कोई आया तो जितेन्द्र उनसे बोला- मम्मी कहीं दुकानदार ही तो नहीं आ गया? मुझे डर लग रहा है। शायद उसे याद आ गया हो कि मैंने तो उसे पचास रुपये का ही नोट दिया था।
दरवाजे पर कौन है?
-जाओ! दरवाजा खोलकर देखो कि कौन आया है? उसकी मम्मी ने उससे कहा तो वह बोला- मुझे तो डर लग रहा है मम्मी। आप देखिए।
उसकी मम्मी ने दरवाजा खोला तो वहाँ पर पुलिस के सिपाही को देखकर जितेन्द्र डर गया। उसने सोचा। – शायद दुकानदार ने ही उसे पकड़वाने के लिए सिपाही को उसके घर पर भिजवाया है। यह सोचकर वह डरते हुए अपने कमरे में जाकर छुप गया।
-बेटे, देखो तुमसे ये क्या कह रहे हैं? – उसकी मम्मी ने उसके कमरे में जाकर उससे कहा।
-अरे कहाँ छुप गये तुम? – सिपाही ने जितेन्द्र से कहा तो वह बुरी तरह से डर गया। उसकी मम्मी ने जब उसकी यह हालत देखी तो वे उससे बोली- बेटे! ये तो तुम्हारे पापा के दोस्त हैं।
-मुझे तो पुलिस से डर लगता है मम्मी।– सुनकर जितेन्द्र ने डरते हुए कहा।
मम्मी बोली- बुरा काम करने पर डर ही लगता है बेटे। अच्छे काम करने वाले लोग निर्भय होकर रहते हैं। उन्हे कभी किसी से डर नहीं लगता है।
-तुम्हारी मम्मी ठीकर कह रही है बेटे। – कहकर सिपाही वहाँ से चला गया तो जितेन्द्र अपनी मम्मी के पास आ गया । उसे डरते हुए देखर उसकी मम्मी उससे बोली- चलो उस दुकानदार के पास चलते हैं।
डर कैसे दूर करूं?
उसके पास जाकर उसे उसके पचास रुपये वापस देते हैं। तभी तुम्हारा यह डर दूर होगा।
-हाँ मम्मी चलो।– जितेन्द्र ने उनसे कहा और फिर वह उनके साथ उस दुकानदार के पास चला गया। उसकी दुकान पर पहुँचकर जब उसकी मम्मी ने उसे अपने बेटे जितेन्द्र की ये बाते बतायी तो उन्हें सुनकर दुकानदार उनसे बोला- आपने अपने बच्चे को ऐसी सीख देकर मेरी भी आँखें खोल दी हैं। बहन जी! मैं भी जब अपनी दुकान की चीजों में मिलावट करके उन्हें बेचता हूँ तो मुझे भी हमेशा यही डर लगा रहता है कि कहीं मैं पकड़ा न जाऊँ। अब मैं भी न तो अपनी दुकान की चिजों में कभी मिलावट करूंगा और न ही उनकी काला-बाजारी करके उन पर अधिक लाभ कमाऊँगा।
सुनकर जितेन्द्र के चेहरे पर मुस्काराहट आ गयी। उसे मुस्कुराते हुए देखकर दुकानदार उसकी मम्मी से बाला- बहन जी, देश के सभी लोग आपकी ही तरह से अपनी बच्चों को ऐसी ही सीख दें तो उनके बच्चे अपने जीवन में कभी कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे उनकी बदनामी होकर उन्हें अपमानित होना पड़े। – कहकर दुकानदार जितेन्द्र से बोला- बेटा, बुरे और अनुचित काम करने वाले लोग अपने अपराबोध से हमेशा डरते रहते हैं। इसलिए हमें हमेशा उचित और अच्छे काम करने चाहिए।
सुनककर जितेन्द्र की मम्मी उससे बोली- दूसरों को धोका देकर हम उन्हें नहीं बल्कि स्वयं को धोखा देते हैं। भगवान भी हमें हमारे बुरे कार्मो की सजा देते हैं।
-मम्मी! अब मैं कभी किसी को धोखा नहीं दूंगा और न ही कभी कोई ऐसा काम करूंगा जिसके कारण मुझे आज की तरह डरना पड़े । मैं हमेशा अच्छे और उचित काम करके निडर होकर रहूंगा।– सुनकर उसकी मम्मी खुसी से मुस्कुरा उठी थीं।
पिता की सीख
दाताराम के तीन बेटे थे। राजन, मदन और देव। तीनें भाइयों की प्रकृति में जमीन-आसमान का अन्तर था। बड़ा बेटा स्वच्छ, साफ, शानदार स्थान पर रहना पसन्द करता था.। उसकी इच्छा थी कि वह बड़ा होकर नगर में आलिशान बंगला बनवाये। मंझले बेटे मदन को अच्छी- अच्छी चीजो का संग्रह करने का शौक था। छात्र जीवन में उसने अनेक बहुमूल्य वस्तुएं खरिद ली थी।
मदन की इच्छी थी कि वह जल्दी बड़ा होकर फ्रिज, टी.वी., कार आदि सुविधा की सभी चीजें प्राप्त कर ले। सबसे छोटा देव मस्तमौला था। उसे न तो घर की चिंता थी, न बहूमूल्य वस्तुओ के संग्रह का शौक, देव को चिन्ता थी तो बस पेट की। वह खूब तर-माल खाता था। और नियमित व्यायाम करता था। उसने अपने भविष्य के बारे में कुछ सोचा ही नही था।
दाताराम अपने तीनों बेटों के अलग अलग स्वभाव के कारण बहुत दु:खी था। उसने उन्हे बहुत समझाया लेकिन किसी ने वृद्ध पिता की बातो पर ध्यान नहीं दिया। अपने अंतिम समय पर दाताराम ने तीनों बेटो को बुलाया और कहा- मेरे बच्चों, तुम तीनों बहुत अच्छे हो। तुम अलग-अलग उद्देश्यों वाले होते हुए भी सुखी रह सकते हो। बस एक बात का ध्यान रखना हमेशा एक-साथ मिलजुलकर रहना।
तीनों बेटों नें हमेशा की तरह वृद्ध दाताराम की नसीहत पर कोई ध्यान हीं दिया। उन्होंने उसकी मृत्यु के बाद अपन पैतृक जमीन-जायदाद को बेचकर रुपयों का हिस्सा बांट लिया और अपने-अपने हिस्से की रकम लेकर शहर चले गये।
दैव योग से उन्हें शहर में काम मिल गया तथा वे अपने-अपने काम में लग गये। अब उनके पास एक –दूसरे से मिलने का समय नहीं था।
धीरे-धीरे कई वर्ष बित गये। इस बीच तीनों की शादियां हो गयीं तथा वे परिवार वाले हो गये। राजन का उद्देश्य एक शानदार बंगला था। अत: उसने शहर आते ही एक शानदार बंगला बनवाया। किन्तु इसमें उसका इतना धन लग गया कि वह अपन आवश्यकता की कोई भी अन्य चीज नहीं खरीद सका था।
दूसरा भाई मदन एक किराये के मकान में शान से रह रहा था। उसके पास फ्रिज, टी.वी., कार आदि सभी सुख-सुविधाओं की चीजें थी। उसकी पत्नी तथा बच्चे बहुत खुश थे, लेकिन कभी-कभी मदन परेशान हो जाता । जिस मकान में वह रहता था। वह इतना पुराना था कि बरसात में बरसात में उसकी छतें टपकती थीं। जिससे उसकी बहुमूल्य वस्तुएं खराब हो जाती थी। उसका भी पूरा धन बहुमूल्य वस्तुओं की खरिदारी में ही समाप्त हो चुका था।
तीसरे भाई देव के पास न अपना घर था और न ही ऐशो-आराम की बहुमूल्य वस्तुएं। किन्तु वह अपने दोनों भाइयों से अधिक सुखी और प्रसन्न था। उसका शरीर इतना स्वस्थ और शक्तिशाली था कि आस-पास के लोग उससे भय खाते थे। शक्तिशाली होने कारण देव दादागिरी भी करने लगा था। वह किसी से भी कुछ भी उधार ले लेता और कभी भी न लौटाता। उसकी दादागिरी से डरकर लोग चुप रह जाते । एक बार एक दुकानदार अपनी उधारी लेने उसके घर पुहँच गया। देव को यह बडा अपमानजनक लगा। उसने हमेशा की तरह दुकानदार से झगड़ा करने लगा।
दुकानदार भी हृष्ट-पुष्ट था। वह देव से भिड़ गया। परन्तु देव ने उसे खूब पीटा और भीड़ एकत्रित हो गयी। बेचार दुकानदार खून से लथपथ हो गया। इसी समय पुलिस आ गयी और देव को हवालात में बन्द कर दिया गया।
देव के हवालात में बन्द होते ही उसे नौकरी से निकाल दिया गया। इस मौके का फायदा उठाकर देव के मकान मालिक ने भी उसका सामान घर के बाहर कर दिया। उसने पिछले कई महिनों से मकान का किराया नहीं दिया था।
देव ने कभी कुछ बचाया था नहीं। अत: उसके परिवार वालों की भूखे मरने की नौबत आ गयी। वे गऱ से बेघर हो गये।
अचानक देव को राजन और मदन की याद आयी। उसने अपनी पत्नी को बुलाया तथा मदद के लिए अनपे बड़े भाइयों के पास भेजा।
राजन और मदने मन के बड़े अच्छे थे। उन्होंने देव की पत्नी और बच्चों को घर में आश्रय दिया तथा तुरन्त थाने जाकर देव को छुडवाया। देव अब राजन के पास रहने लगा। देव और उसकी पत्नी व बच्चे राजन के पास बहुत खुश थे। राजन का बंगला वास्तव मे शानदार था। उसमें कई कमरे थे। देव और उसकी पत्नी व बच्चे कभी –कभी मदन के पास भी चले जाते थे। मदन के पास कार में घूमते और रोज टी.वी. देखते लेकिन मदन का घर अच्छा नहीं था।
देव सामान्य बुद्धि का था । लेकिन उसे बार-बार पिता कि नसीहत याद आती ‘हमेशा मिलकर साथ रहना’ । वह सोचता ‘काश! हम तीनों भाई एक –साथ रहते तो सभी कितने सुखी हो जाते’।
देव के कारण राजन और मदन का भी एक –दूसरे के घर आना आरम्भ हो गया। जब तीनों भाई और उनके परिवार वाले एक-साथ एकत्रित हो जाते तो ऐसा लगता मानों कोई त्योंहार हो। बच्चे तो विशेष रूप से काफी खुश थे।
पिता की नसीहत
धीरे-धिरे राजन और मदन को भी पिता की नसीहत याद आने लगी।
दोनों भाई एक-साथ रहना चाहते थे। किन्तु संकोच के कारण एक-दूसरे से कहने में हिचक रहे थे। तभी एक दुर्घटना हो गयी।
बरसात के दिन थे। एक दिन तेज पानी बरसा। मदन का घर बहुत पुराना था। बारिश से उसके मकान का आधा भाग गिर गया। ऐसा लगता था मानो कभी भी पूरा घर धराशायी हो सकता है। मदन का कीमती सामान पानी से भीगने लगा।
इसी समय राजन आ गया। उसने मदन के सामान की दुर्दशा देखी तो उससे रहा नहीं गया। राजन बोल पड़ा- मदन उठो, अपने घर चलो सारा सामान लेकर । हम तीनों भाई एक-साथ रहेंगे। तुम्हें याद है हमें पिताजी ने अन्तिम समय यही नसीहत दी थी। लेकिन हम लोग उनकी बात भूल गये। इसीलिए हमें इतने कष्ट उठाने पड़े।
-हाँ भैया, चलो अभी चलते हैं। अब हम तीनों हमेशा एक साथ रहेंगे। – कहते हुए मदन राजन से लिपट गया। देव दूर खड़ा उनका मिलन देख रहा था। अब उन्हें किसी का डर न था। घर, ताकत, धन आदि सभी कुछ तो था उनके पास। आज उन्हें पिता जी की कहीं बातें समझ आ रही थीं कि मिलजुल कर रहने में कितनी भलाई है।
सच्चा न्याय की कहानी
भारतीय संस्क्रति में काशी का नाम बडी श्रध्दा से लिया जाता हैं। यहॉं के राजा न्याय के लिए अत्यंत प्रसिध्द हैं।
बात बहुत पुरानि हैं। माघ का महीना था। शीत ऋतु थी। काशी नरेश की महारानी अपनी दासियों के साथ गंगा-स्नान को गई थीं। उस समय गंगा किनारे अन्य किसी को नहाने की अनुमति नही थी। गंगा किनारे जो झोपडीया थीं, उनको राज्य के राजसवकों ने खाली करा लिया था। महारानी स्नान करने कै उपरान्त ठंड से बुरी तरह कांप रही थी। उन्होने अपने आस पास देखा, उन्हे कहीं पर भी सुखी लकडियां दिखाई नही दीं। तब रानी ने एक दासी को बुलाकर कहा- ‘किसी एक झोपडे में आग लगा दो, जिससे मेरी सर्दी दुर हो जाये। मुझे अपना शरीर सेंकना हैं।
दासी ने रानी से कहा- महारानी जी! इस झोपडी में दीनहीन गरीब रहते होंगे या फिर साधु-संत। ऐसे जाडे में इसमें आग लगा दी जाएगी तो फिर ये गरीब कहां जाएंगे?
महारानी का नाम करुणा था लेकीन सम्पन्नता में बड़ी होने के कारण उन्हे गरीब लोगो के कष्ट का कोई अनुभव नही था। वे अपना आदेश पालन कराने में चतुर थीं। उन्होनें तत्काल दुसरी दासी को आदेश दिया कि- यह बडी दयावान बनी है। इसे तुरंत मेरे सामने से हटा दो और सामने वाले झोपडे में आग लगा दो।
महाराणी करुणा की आज्ञा का तत्काल पालन किया गया। जब एक झोपड़े में आग लगा दी तो तेज हवा के कारण आग फैलने लगी। देखते ही दखते सभी झोपडे में आग को समर्पित हो गए। रानी की सर्दी तो दुर हो गई और वे राजमहल वापस आ गई। तभी जिनके झोपडे जले थे । रोते-बिलखते राजसभा मे पहुँच गए। महाराज को उस समाचार से अत्यंत मानसिक कष्ट हुआ। उन्होने राजमहल मे महारानी के कक्ष में जाकर कहा- यह तुमने क्या किया? तुमने हमारी प्रजा के घर जला कर बहुत बड़ा अन्याय किया है। इसका तुमको कोई पछतावा नही हैं?
महाराणी को अपने रुप और अधिकार का बहुत घमण्ड था। वे महाराज से बोली- आप उन गंदे झोंपडो को घर कहते है। वे जला देने के ही योग्य थे। इसमे अन्याय की कोई बात नहीं है।
अब महाराज ने कुछ कठोर शब्दों में कहा- महारानी न्याय सबके लिए बराबर होता हैं। तुमने गरीबों को असहनीय कष्ट दिया हैं। यह झोंपडे गरीबो के बहुत कीमती थे। अब तुम यह भली भाँती समझ जाओगी।
महाराज ने तत्काल दासियों को आज्ञा दी- महारानी के स्वर्णाभुषण और वस्त्र ले लिए जाए। इनको एक फटी-पुरानी साड़ी पहनाकर राजसभा में तुरन्त उपस्थित करो।
जब तक महारानी कुछ कहें। उससे पुर्व महाराज वहाँ से चले गए। दासियों ने राजा की आज्ञा का पालन किया. एक भिखारिन की तरह फटी साडी पहने जब महारानी राजसभा में उपस्थित हुई तो न्याय आसन पर बैठे महाराज ने अपनी घोषणा सुनाई।
उन्होने कहा- मनुष्य जब तक स्वयं कष्ठ में नही होता। वह दुसरो के कष्ठ का अनुभव प्राप्त नही कर सकता। इसलिए महारानी को राजमहल से बाहर रहना होगा। और जिन झोपडों को इन्होनें जलाया हैं। जब तक यह भिक्षा मांगकर उन्हें बनवा नहीं देंगी तब तक इनका राजभवन में प्रवेश वर्जित होगा।