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नमस्ते आज की इस भावनात्मक और शिक्षात्मक कहानी (emotional and motivational stories) में स्वागत है। इस kahani से आपको अपने जीवन की असली कमी का अहसास होगा। जो सामान्यत: गलती हर कोई कर जाता है। यहां पर आपको बच्चों के लिये अच्छी कहानीयां मिलेगी।
मेरा नाम प्रेम है और मुझे पुरी उमीद है कि आपको यह कहानी पसन्द आयेगी। यह कहानी एक हकिकत पर आधारित है। इसलिए इस कहानी को जररू पढे. और अपने परिवार के साथ पढ़े।

दादी जी, यह घण्टी सम्भालकर रखना

गणपत राय नामक एक व्यक्ति बहुत अमीर था। वह बहुत बड़े बंगले में रहता था। उसका कारोबार बहुत अच्छा था। उसे हर प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध थी। समाज में उसका स्थान प्रभावशाली होने के कारण उसका हर तरह से सम्मान किया जाता था।

ये सब कुछ होते हुए भी उसका मन बड़ा गमगीन-सा रहता था क्योंकि उसके घऱ में संतान नहीं थी और अन्दर ही अन्दर उसे लगता था कि उसके जाने के बाद सम्पत्ति और ठाट-बाट कौन सम्भालेगा।

दादा की घंटी की कहानी | bachhon ke liye achhi kahaniyan
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कई प्रकार के ईलाज और साधु-संतो के आशीर्वाद के बाद उसके घर एक सुन्दर बच्चे ने जन्म लिया । जिसका गणपत राय ने बड़े लाड-प्यार से पालन –पोषण किया। उस बच्चे को वह अपने जीवन का सहारा मानने लगा और बड़ा होने पर धीरे- धीरे सारी जायदाद उसको सौंप दी।

समय आने पर बच्चे की शादी भी बड़ी धूमधाम से की गई और गणपत राय प्रफुल्लित खानदानी घराने के सपने देखने लगा परन्तु आने वाली बहू ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया क्योंकि वह अपने कर्तव्यों को निभाने की बजाय अपने अधिकार प्राप्त करने में चतुर निकली। बात- बात पर झगड़ा करना, कदम- कदम पर बेइज्जत करना उसका स्वभाव बन गया।

उसका पति शाम को जब अपने कारोबार से वापिस घर लौटता तो अपने सास- ससुर के प्रति उसके कान भरकर अपने पति की नींद भी हराम कर देती थी।

उसके व्यवहार से गणपत राय बड़ा लाचार हो गया और उसका बेटा भी मजबूर –सा रहने लगा रहने लगा। न चाहते हुए भी वह अपनी पत्नी के चंगुल में फंस गया और अकस्मात् ही उन्होनें यह फैसला किया कि उनके रिहायशी बंगले के कोने में जो अलग कमरा बना हुआ है वहाँ पर दोनों बुजुर्ग गणपत राय और उसकी पत्नी रह करेंगे तथा उनके काम नौकर किया करेंगे।

गणपत राय और उसकी धर्मपत्नी को सुबह, दोपहर और शाम अलग कमरे में नियमित रूप से खाना भेज दिया जाता था। अगर उनको किसी और चीज की जरूरत पड़ती तो वह भी उनके पास पहुँचा दी जाती थी । इसके कमरे में एक घंटी रख दी गई जिसको बजाने पर नौकर उनकी बात सुनने के लिए आ जाता था।

समय बीतता गया। गणपत राय के परिवार में पौते ने जन्म लिया। उसका भी बड़े लाड- प्यार से लालन- पोषण होने लगा। जब उसने कुछ होश संभाली तो उसने पिता से बंगले के कोन में रह रहे गणपत राय और उसकी पत्नी के बारे में पूछा जो वास्तव में उसके दादा- दादी थे।

उसके पिता ने कहा कि ये मेरे माता- पिता हैं। यह सुनकर बच्चे ने अपने दादा- दादी के पास जाकर उठना, बैठना व खेलना शूरू कर दिया लेकिन उसकी माँ को यह अच्छा नहीं लगता था।

एक दिन शाम को जब उसका पिता अपने कारोबार से वापस आया तो बच्चे ने कहा- ‘पिता जी, आप अपने माता- पिता से मिलने क्यों नहीं जाते? उनको अलग कमरे में क्यों रखा हुआ है? उनको आप अपने साथ इस बड़े घर के अन्दर क्यों नहीं रहने देते ?’

ये बातें जब बच्चे ने पिता से कही तो उस समय बच्चे की माँ माथे के उपर तेवर बनाकर उसकी बातें सुन रही थी। बच्चे के माता- पिता ने एक दूसरे को भली –भाँति देखा और बच्चे की भावना को भी सुना। उसकी माता ने तो साफ इंकार कर दिया कि वह उस कोने वाले कमरे में नहीं जायेंगी जहाँ उसके सास- ससुर रहते हैं।

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दादी की कहानी – बीमार घोड़ा | latest story in hindi

पिता को किसी तरह से बच्चे ने मना लिया कि वह बुजुर्ग माता- पिता के पास उसके साथ जाये और यदि सम्भव हो तो उनको बंगले के अन्दर कोई अच्छा-सा कमरा दे दें।

बच्चा अपने पिता को साथ लेकर दादा- दादी के पास गया। थोड़ी देर बैठने के बाद पिता को वहीं रहने के लिए कहा और खुद दोड़ा- दौड़ा अपनी मम्मी के पास आया। बच्चा मम्मी को कहने लगा- “मम्मी आप भी उस कमरे मे चलो जहाँ दादा- दादी जी बैठे हुए हैं।

यदि आप मेरे साथ नहीं चलोगे तो मैं वहाँ जाकर फिर कभी इधर आपके पास नहीं आउंगा।“ बच्चे की जिद को देखकर बेदिली से उसकी मम्मी उस कमरे में चली गई जहाँ उसके सास- ससुर बैठे हुए थे। वहाँ पहुँचते ही बच्चा अपने दादा और दादी जी के साथ घुल –मिलकर खेलने लगा और अपने मम्मी –पापा से कहने लगा- “आप मेरे दादा-दादी को घर के अन्दर ले चलो।“

उसके मम्मी –पापा काफी समय तक चुप रहे। जब उनसे कोई उत्तर नहीं मिला तो बच्चे ने वहाँ पड़ी घंटी को अपने हाथ में लेकर अपने दादा- दादी जी से कहा- “देखो आप इस घंटी को कहीं गुम न कर देना, इसको सम्भाल कर रखना क्योंकि जब मेरे मम्मी-डैडी बुजुर्ग होंगे और मैं इनको इसी कमरे में भेजुगा तब यहीं घंटी इनके काम आएगी।“

बच्चे की यह बात सुनकर दादा- दादी और उसके माता –पिता भी हैरान हो जाते है। माता- पिता के पैरो से जमीन हिल गयी। यह सुनकर उनके सामने भी उनके बुरे दिन दिखाई देने लग गये। और उन्हे अपनी गलती का अहसास होने लगा।

और उसकी मम्मी ने अपने बच्चे के हाथ से घंटी छीन ली। और कहां बेटा हमें पता चल गया है कि अगर हमें अपने बड़ो का आदर नही करेंगे तो हमारे बच्चे भी यही सिखेंगे। और जब हम बुजुर्ग हो जाऐंगे तो हमारे बच्चे भी हमारे साथ वहीं करेंगे।

इसलिए बेटा हमें माफ कर देना और अब चलो घर चलते है । तुम अपने दादा – दादी को लेकर घर चलो। हम इनका आदर सत्कार से गृह प्रवेश करेंगे। और कभी भी निरादर नहीं करेंगे।

तलवार और सुई की कहानी

एक योद्धा था। उसके शयनकक्ष की किसी दिवार पर खूंटी के सहारे एक तलवार लटक रही थी। पास ही फर्श पर एक सुई गिरी पड़ी थी। जिसमें उजला धागा पिरोया हुआ था।

तलवार एकाएक अट्टहास कर उठी। सूई कुछ समझी नहीं। वह पूछ बैठी, “बहन, यह कैसा अट्टहास?”

“तुम नाचीझ मुझे क्या समझोगी?” तलवार अहंकार से भरी हुई बोलती है।

दादा की घंटी की कहानी | bachhon ke liye achhi kahaniyan
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“फिर भी कुछ तो कहो” ,सुई सहज मुस्कान के साथ कहती है।

“मेरी ताकत की मत पूंछो। मैं बहुत ताकतवर हूँ। तलवार के मुख से अभिमान टपक रहा था। उसकी अकड़-ऐंठ देखते बनती थी।

सुई नम्रता से फिर बोली, “मान लिया तुम खुब ताकतवर हो। मगर उसका ढिंढोरा पीटने से क्या फायदा?”

“मूर्ख सूई! मैं सच्चाई बखान कर रही हूँ और तू इसे ढिंढोरा पीटना कहती है।“

“ढिंढोरा ही तो है। भला बता, तू अपनी किसी ताकत की बात कर रही है?” सुई ने सीधा सवाल किया।

“अरी नासमझ, तू जनती नहीं, मैने कई वीर योद्धाओं को अपनी ताकत से धराशायी कर दिया है, उनके सिर को धड़ से बिल्कुल अलग कर डाला है।“ तलवार घमंड से आगे बोली, “बड़े-बड़ों के हौंसले मेरे सामने पस्त हो जाते हैं। समझी।“

“खूब समझी!” सूई संयत स्वर में बोली, “अब यह बता, तूने आज तक कितने सिरों को धड़ों से अलग किया है?”

“सैकड़ों, “ तलवार गर्व से बोली।

“बहुत खूब!” सूई आगे बोली, “अच्छा, अब यह भी बता दो कि कितने अलग हुए सिर-धड़ को तूने आजतक जोड़ा है?”

“एक भी नहीं।“ तलवार नहीं समझ पाई कि सुई क्या कहना चाहती है?

“क्या एक भी कटे सिर-धड़ को तुम जोड़ सकती हो?”

“नहीं तो!”

“मतलब कि तुम्हारी ताकत सिर-धड़ को अलग करने के काम आती है, उन्हें जोड़ने में नहीं।“

“हाँ।“

“अब बता, किसी पेड़ से उसका पत्ता तोड़ना आसान होता है कि टूटे पत्ते को पेड़ से जोड़ना?”

“तोड़ना!” तलवार के मुख से सच्चाई निकल पड़ी।

“मतलब कि तुम आसान काम कर सकती हो, कठिन नहीं। फिर तुम अपनी ताकत को ज्यादा महत्व क्यों दे रही हो? क्या वह तुम्हारी मूर्खता नहीं है?” सूई जब तलवार को अच्छी तरह समझा कर बोली तो उसे कुछ उचित जवाब नहीं सूझा। वह चुप रही।

थोड़ी देर ठहर कर सूई फिर बोली, “मैं भले ही तुम से आकास में बहुत छोटी हूँ। मगर मेरा काम कटे-फटे को जोड़ना है। एक को दूसरे से अलग करना नहीं। मेरा काम तुम नहीं कर सकती हो, कभी नहीं।

याद रहे, हमारे पास जो भी ताकत है, उसका जितना हम सही उपयोग करेंगे, वही हमारी ताकत की शान है, जान है और है हमारा मान भी। ताकत का दुरूपयोग तो एक दिन हमारे अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है। साथ ही दूसरे की नफरत का भी हमें कोपभाजन होना पड़ता है।“

“ठीक कह रही हो, वहन!” तलवार को सुई की समझ बातें अब रुचिकर लगने लगी। और वह उसे सही भी मान लेती है।

शिक्षा (moral of story)

मित्रो हमें अपने जीवन को सुई के समान बनाना है। जो हर चीज को जोड़ने का काम करती है।

श्रेष्ठबुद्धि की कहानी

एक मेंढक था। वह बहुत ही चतुर था। एक कौआ कई दिनों से उसे पकड़ने का प्रयास कर रहा था। लेकिन मेंढक उसके हाथ ही नहीं आ रहा था।

आखिर एक दिन कौए को अच्छा मौका मिल गया। मेंढक आसाम से बैठा धूप सेंक रहा था। तभी कौए ने उसे पीछे से धर दबोचा और टाँग पकड़ कर आकाश में ले उड़ा। बेचारा मेंढक घबराया तो बहुत लेकिन साहस नहीं छोड़ा। वह अपने मुक्त होने की युक्ति सोचने लगा।

कौआ एक पेड़ पर बैठ गया और मेंढक से बोला- “मरने को तैयार हो जाओ, मैं तुम्हे खाउंगा।“

श्रेष्ठबुद्धि की कहानी | bachhon ke liye achhi kahaniyan

अब तक मेंढक काफी संभल चुका था। वह मुस्काराता हुआ बोला- “हे कागराज! आप शायद इस पेड़ पर रहने वाली भूरी बिल्ली को नहीं जानते? वह मेरी मौसी है। यदि तुमने मुझे जरा भी नुकसान पहुंचाया तो तम्हारे प्राणो की खैर नहीं है।

कौआ जरा भयभीत हो उठा। उसने फिर से मेंढक की टाँग पकड़ी और उड़कर एक पहाड़ी पर जा बैठा।

मेंढक की बुरी हालत थी। उसने सोच लिया कि कौआ उसे छोड़ने वाला नहीं है लेकिन उसने अपने चेहरे पर भय कि शिकन न आने दी।

“हे कागराज! यहां भी आपकी दाल गलने वाली नहीं। यहां भी मेरा मित्र भौं-भौं कुत्ता रहता है, यदि उसे पता चला कि तुम मुझे खाना चाहते हो तो वह तुम्हारे पंख नोच लेगा।“ मेढक कहता है।

निराश होकर कौआ वहाँ से भी उड़ा और एक नदी के किनारे जा बैठा। “मैं समझता हूं कि यहाँ तुम्हे बचाने वाला कोई नहीं है।“ कौए ने मेंढक से कहा।

बेचारे मेंढक के हाथ- पैर फूल गये थे। फिर भी वह अपनी बुद्धि बल से सोच कर बोला- “कागराज अब तो मैं आपके ही हाथ में हूँ। आप मुझे आराम से खा सकते है। मगर कितना अच्छा होता कि तुम अपनी चोंच पैनी कर लो जिससे मुझे कम कष्ट होगा।“

कौआ मेंढक के बहकावे में आ गया। बोला- “अरे यह कौन-सी बड़ी बात है।“ यह कहकर वह अपनी चोंच नदी के किनारे के एक पत्थर पर घिसने लगा।

मेंढक के लिए इतना अवसर बहुत था। उसने तुरन्त उछलकर पानी में डुबकी लगा दी, बेचारा कौआ, अपना-सा मुंह लेकर बैठ गया। तभी पानी में से एक आवाज आई- “कागराज! चोंच तो आपने पैनी कर ली। अब बुद्धि भी पैनी कर लो। तब मैं कही आपके हाथ आऊंगा।

बेचार कौआ अपनी बुद्धि पर तरस खा रहा था।

शिक्षा (moral of story)

इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि किसी भी मुशीबत में हमे साहस नहीं छोड़ना चाहिए औऱ अगर हमारे पास बल नहीं है तो हम अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर सकते है। हार मानने से कुछ भी नहीं होता है।

कहानी के अंतिम शब्द :

मुझे पूरी उमीद है कि यह kahani आपको पसन्द आयी होगी। और आशा करता हूं कि आपने यह गलती नहीं की होगी और न ही करोगे। ताकि आपके बच्चे भी इस गलती से बच पाए। और अच्छी बातें सिखे।

अगर आपको यह कहानी पसन्द आती है तो इसे अपने दोस्तो के साथ जरूर सांझा करे। और हमारी आने वाली कहानीयों (stories) को अपने परिवार के साथ मिलजुलकर पढ़े और अपने परिवार को इसी तरह से खुशिहाल रखे।

यही हमारा प्रयास है।

कहानी को पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद।

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